ब्रह्मचर्य पालन करने की त्रिचरन विधि

अतः ब्रह्मचर्य पालन की सबसे मूलभूत त्रिचरण विधि भी यही बनती है…

1. ज्ञान प्राप्ति

2. ध्येय धारण

3. पौरुष वृद्धि

इसके पालन से कोई भी व्यक्ति सहजता से ब्रह्मचर्य का पालन कर सकता है। अब आइए समझते हैं कि कैसे हो सकता है इस त्रिचरण विधि का पालन।

ब्रह्मचर्य पालन की त्रिचरण विधि का सबसे प्रथम चरण है,

1. ज्ञान प्राप्ति

जो मात्र तीन तरीक़ों से हो सकती है।

1. गुरुकुल शिक्षा

2. साधु संग

3. शास्त्र पठन

और इन तीनों में सर्वश्रेष्ठ है,

1. गुरुकुल शिक्षा

क्योंकि इसमें व्यक्ति को तीनों आवश्यक संसाधन की प्राप्ति होती है,

1. उत्तम ज्ञान

2. उत्तम मार्गदर्शन

3. उत्तम वातावरण

इसीलिए जो व्यक्ति बचपन से गुरुकुल के वातावरण में पढ़कर बड़ा हुआ है और अध्यात्म और भगवद्माप्ति में आसक्त है उसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन अत्यंत ही सरल हो जाता है।

क्योंकि कुमारावस्था से ही उसकी चेतना को साधु, गुरु और शास्त्र तीनों का संग और गुरुकुल का आध्यात्मिक वातावरण मिला है। जो उसकी बुद्धि और आदतों को हमेशा सात्त्विक रखते हैं।

परंतु हम यह जानते हैं कि आज के समय में अधिकतर आज के युवाओं को यह सौभाग्य नहीं मिला है कि वे गुरुकुल में पढ़कर बड़े हो सकें। इसीलिए उनके लिए दूसरा श्रेष्ठ तरीका है।

2. साधु संग

क्योंकि इसमें व्यक्ति को दो आवश्यक संसाधन की प्राप्ति होती है,

1. उत्तम ज्ञान

2. उत्तम मार्गदर्शन

परंतु सतत साधु संग में रह पाना अधिकतर लोगों के लिए संभव न हो पाने से उन्हें सतत उत्तम वातावरण नहीं मिल पाता।

फिर भी, जितना भी संभव हो उतना साधु गण, भक्त गण और गुरुजनों के संग में रहना चाहिए।

साधु जनों के मात्र समीप रहने मात्र से शास्त्रों के ज्ञान की प्राप्ति और साक्षात्कार दोनों ही हो जाते हैं। बिना साधु संग के जब मार्गदर्शन के अभाव में शास्त्र पठन करते हैं तो ज्ञान का सही अर्थ और उसका साक्षात्कार दोनों मिलना कठिन हो जाता है।

इसीलिए साधु संग स्वतंत्र शास्त्र पठन से श्रेष्ठ है। परंतु जिनके लिए साधु संग भी दुर्लभ है उनके लिए अंतिम रास्ता रहता है,

3. शास्त्र पठन

अब इसमें उत्तम ज्ञान तो मिल जाता है, परंतु उत्तम मार्गदर्शन और उत्तम वातावरण नहीं मिल पाता है।

हालाँकि आज के समय में हम भाग्यशाली है कि, इंटरनेट के माध्यम से हमें उत्कृष्ट भक्तों और साधुओं के प्रवचन के रूप में मार्गदर्शन सरलता से मिल सकता है।

इसलिए शास्त्र पठन के साथ सतत ऐसे उत्कृष्ट भक्तों, साधुओं और परंपरागत धर्म गुरुओं के प्रवचनों को सुनना और उनके ग्रंथों को पढ़ना चाहिए।

और आप यदि पद्धतिबद्ध रूप से शास्त्रों को सीखना चाहते हैं, तो हमारे ऑनलाइन गुरुकुल veducation.world से सरलता से सीख पाओगे।

परंतु यदि इतना भी समय नहीं है पढ़ने का या आप जानते नहीं है कि शुरुआत कहाँ से करें, तो सर्वप्रथम B.O.S.S पुस्तक पढ़ें। उससे आपको समस्त सनातन संस्कृति का मूलज्ञान अत्यंत ही सरल भाषा में मिल जाएगा और आगे क्या पढ़ना है इसका निर्णय ले पाओगे।

और यदि आप अन्य शास्त्र न भी पढ़ पाओ तो भी

इस पुस्तक मात्र से आप अपने नित्य और नैमित्तिक कर्म और धर्म को अच्छी तरह से समझ लोगे। जिससे फिर आप कर पाओगे अपना…

2. ध्येय धारण

एक बार आपको स्वयं का, समाज का और संसार का मूलभूत ज्ञान हो जाता है तो आप अपने धर्म, कर्म और ध्येय को समझ जाते हो।

आपको ज्ञात हो जाता है कि, आपका इस मनुष्य जीवन में ध्येय क्या है, और उस ध्येय की प्राप्ति के लिए आपको प्रतिदिन कौन से कर्म करने हैं?

और संक्षिप्त में बताएँ तो हर मनुष्य का अंतिम ध्येय एक ही है, भगवद्द्माप्ति।

जन्म जन्मांतर के सभी लौकिक पारलौकिक ध्येयों का अंत यहीं पहुँचकर आता है। अतः भगवद्द्माप्ति के लिए अपने वर्ण, आश्रम और सामाजिक सक्षमता के अनुसार आपके परिवार, गुरु, देव, समाज और धर्म के प्रति अपने कर्मों को करना ही आपके जीवन का उच्चतम ध्येय है।

फिर वो कर्म कितने भी बड़े या छोटे क्यों न हो, उनसे हटना नहीं है। उनपर दृढ़ रहना है।

यदि इतना कर रहे हो तो आपको दुनिया में कुछ भी और करने की आवश्यकता नहीं है। आपका जीवन संपूर्ण रूप से सार्थक है, पूरे विश्व में कुछ भी ऐसी चीज़ नहीं है जो आप चूक रहे हो। बस ये है कि आप अपने धर्म कर्म और ध्येय को लेकर गंभीर हो ये आवश्यक है।

जब आपका ध्येय गंभीर होता है और आप अपनी समस्त शक्तियों का उपयोग उस ध्येय के प्राप्ति में लगा देते हो तो शरीर की ये कामेच्छाएँ उस ध्येय के सामने अत्यंत ही तुच्छ लगने लगती हैं।

उन्हीं धर्म कर्म के पालन मात्र से आपमें धैर्य, साहस, संयम, नम्रता, मर्यादा और विवेक की वृद्धि होने लगती है।

और इन्ही गुणों की वृद्धि से फिर होती है आपमें…

3. पौरुष वृद्धि

और पौरुष की वृद्धि से आप में होती है, प्राण वृद्धि।

जी हाँ!

स्मरण कीजिए, पुस्तक की शुरुआत में हमने वीर्य की पाँच अवस्थाओं के बारे में बात की थी।

उनमें से वीर्य की सर्वप्रथम अवस्था कौनसी थी? जो की सबसे उच्च कक्षा का वीर्य है, सीधा परमात्मा से आता है, और आत्मा से होकर हमारे शरीर में विद्यमान होता है?

वो है, गुणावस्था में वीर्य। अर्थात् गुण स्वरूप में वीर्य।

आपका यह पौरुष (Masculine Excellence) ही आपके शरीर में स्थित वो गुण स्वरूप में वीर्य है।

जो कि फिर प्राणावस्था में परिवर्तित होता है, फिर ऊर्जावस्था में, फिर बीजावस्था में, फिर अमृतावस्था में, और फिर पुनः गुण अवस्था में परिवर्तित होकर पुनः पुनः आपमें पौरुष की वृद्धि करके आपको भीष्म पितामह की भाँति एक अखंड ब्रह्मचारी बनाता है।

तो,

यही वो तीन चरण की सर्वोच्च विधि है जिससे बड़े बड़े महात्मा संत आदि अपने ब्रह्मचर्य का पालन अखंड रूप से करके जीवन के उच्चतम ध्येयों की प्राप्ति करते है,

1. ज्ञान प्राप्ति

2. ध्येय धारण

3. पौरुष वृद्धि

जितना आप इस विधि का बिना किसी मेल-जोल (Compromise) के यथारूप पालन करोगे, उतना ही सरलता से आप ब्रह्मचर्य का पालन कर पाओगे और उससे होने वाले परम लाभ को पाओगे।

और जितना आप इसमें मेल जोल करने का प्रयास करोगे, इसके सिद्धांतों का यथारूप पालन न करके इनमें भी मध्यमार्ग (Shortcut) खोजने का प्रयास करोगे, उतनी ही यह विधि आपके लिए जटिल और पालन के लिए अधिक कठिन बनती जाएगी।

इसीलिए कहते है कि,

सरल लोगों के लिए ब्रह्मचर्य अत्यंत ही सरल होता है, जब कि जटिल लोगों के लिए उतना जटिल बनकर रह जाता है।

अतः सरल रहें।

तो,

करना क्या है? Action Plan

1. ज्ञान प्राप्ति : कैसे?

• युवावस्था में हो और संभव है तो गुरुकुल में प्रवेश ले लें।

• संभव नहीं है, या गृहस्थ हो, तो अपने आसपास परंपरा में आने वाले मंदिर, आश्रम, मठ या धर्मी जनों की सभा को ढूंढिए और नियमित उनके संग और मार्गदर्शन में शास्त्र पठन करें।

2. ध्येय धारण : कैसे?

• ज्ञान प्राप्ति से एक बार बैठकर अपने ध्येय की एक दृढ़ धारणा बना लें।

• आवश्यक होने पर अपने ध्येयों को एक कागज़ पर लिख लें।

• उन ध्येयों की धारणा आपके नियमित साधुसंग और शास्त्र पठन आदि से प्रतिदिन अधिक दृढ़ बनती जाएगी और आप अपने शास्त्रोक्त धर्म – कर्म का नियमित पालन करने के लिए और उत्सुक होते जाओगे।

• और जब धर्म कर्म करने की उत्सुकता न हो तब तो ख़ास पालन करो।

3. पौरुष वृद्धि : कैसे?

• अपने धर्म कर्म के पालन मात्र से आपमें अपने आप पौरुष की वृद्धि होती जाएगी और आपमें इंद्रिय संयम, मर्यादा, धैर्य, साहस आदि गुणों की वृद्धि होती जाएगी।

• फिर आपके पास ब्रह्मचर्य तोड़ने के कृत्य करने का तो दूर की बात है, उसके लिए सोचने का भी समय नहीं मिलेगा।

• फिर आपमें बढ़े हुए इस पौरुष से आप अपना, अपनों का और समाज का कल्याण करने में इतने व्यस्त हो जाओगे की इन फ़ालतू के कृत्यों के बारे में किसी के मुख से सुनकर भी आपको उनपर दया आने लगेगी।

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