स्त्रियाँ या महिलाये ब्रह्मचर्य का पालन कैसे कर सकती हैं।

स्त्रियों के लिए ब्रह्मचर्य

जी नहीं।

ब्रह्मचर्य पुरुषों और स्त्रियों दोनों के लिए है। परंतु दोनों का स्वरूप अलग अलग है। पुरुष के लिए जैसे पौरुष धर्म है वैसे ही स्त्रियों के लिए स्त्री धर्म है।

पुरुषों के लिए समस्त इंद्रियों का ब्रह्म को समर्पण ब्रह्मचर्य है। और स्त्रियों के उनके पति ही ब्रह्म स्वरूप होने के कारण अपनी इंद्रियों का अपने पति को समर्पण ही उनका ब्रह्मचर्य है।

अतः जो स्त्री विवाह पूर्व अपना शील और अपनी पवित्रता बनाए रखती है और विवाह के पश्चात पूरा जीवन अपने पति मात्र को अपनी समस्त इंद्रियाँ समर्पित करके रहती है उसे आजीवन ब्रह्मचर्य का फल मिलता है।

पुरुषो में जैसे वीर्य है।

वैसे ही स्त्रियों में रज है।

पुरुषों का शौच धर्म जैसे वीर्य रक्षा से होता है।

वैसे स्त्रियों का शौच धर्म प्रति माह अपने

रजस्वला यज्ञ के पालन से होता है।

क्योंकि स्त्री शरीर स्वयं ही प्रति माह अपने रज व गर्भ की शुद्धि करता है।

अतः स्त्रियों को इसकी चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। शारीरिक रूप से ब्रह्मचर्य का कोई अलग से लाभ नहीं है।

हालाँकि यदि वे अपने पति की अनुमति से मानसिक और आध्यात्मिक लाभ के लिए संभोग से निवृत्ति लेना चाहे तो अवश्य ले सकती है।

विशेष कर संतान प्राप्ति के लिए गर्भाधान करने से पहले कम से कम 3-6 महीने और गर्भाधान के बाद कम से कम 14-16 महीनों तक। अर्थात् संतान प्राप्ति के पश्चात 6-8 महीनों के लिए उन्हें संभोग से निवृत्ति लेनी आवश्यक है।

जहां तक बात रही आजीवन ब्रह्मचर्य की तो, आदर्श रूप से हर स्त्री का विवाहित होना आवश्यक है। क्योंकि स्त्री के मोक्ष का मार्ग विवाह से है।

‘एक स्त्री के लिए उसका पति ही उसका गुरु व गोविंद है अतः उसके विवाह संस्कार से ही उसको उसके उपनयन संस्कार का, पति के घर के वास से ही गुरुकुल वास का, गृहाग्नि (रसोई) से हवन कर्म का और मंगलसूत्र पहनने से ही जनेऊ पहनने का फल मिलता है।’ – वाल्मिकी व तुलसीकृत रामायण, चाणक्य नीति अ.5, मनुस्मृति 65-69 आदि..

परंतु यदि पूर्व कर्मों के फलस्वरूप उसका विवाह न हो, या वैराग्य योग के कारण पति का वरण करने में असमर्थ हो इस स्थिति में भगवान को अपना पति स्वीकार कर समस्त जीवन ब्रह्मचारिणी बनकर रह सकती है।

हालाँकि इसे भी शास्त्रों में आदर्श नहीं माना गया है, क्योंकि अकेली स्त्री को भ्रष्ट करने के लिए दुनिया के हर कोने में अधर्मी लोग प्रतीक्षा करते हुए बैठे ही होते हैं। अतः बिना पति के स्त्री अत्यंत ही असुरक्षित हो जाती है।

इसलिए यदि मीराबाई के समान वैराग्य योग भी हो तो भी उन्हीं की तरह किसी संयमी और धर्मवान पति का वरण करके फिर भजन करना चाहिए। परंतु विवाह तो हर स्त्री को करना ही चाहिए।

हालाँकि उससे भी पहले यह ध्यान रखना आवश्यक है कि विवाह से पूर्व स्त्री अपना शील और अपनी पवित्रता बनाए रखे।

क्योंकि एक स्त्री युवावस्था में सर्वप्रथम जिस पुरुष के साथ शारीरिक और मानसिक संबंध बनाती है उससे उसका संबंध जीवन भर के लिए सबसे प्रगाढ़ बना रहता है। किसी और से संबंध के पश्चात किसी और से विवाह होता है तो उसके लिए संपूर्ण समर्पण कर पाना अत्यंत ही दुर्लभ हो जाता है।

अतः हर युवा स्त्री को चाहिए कि, अपने शील और पवित्रता को विवाह के समय तक बनाए रखे और जब विवाह हो उसके पश्चात अपने पति को अपना मन, हृदय और इंद्रिय सब संपूर्ण रूप से समर्पण करके उसकी सेवा करें।

हमारे इतिहास में अनेकों स्त्रियों ने, अपने पतिव्रता व्रत के पालन मात्र से न ही मात्र भगवान की प्राप्ति की है अपितु अपने सतीत्व के बल से उनको अपने वश में भी किया है।

जैसे कि माता अनसूया ने, अपने पतिव्रता व्रत मात्र से स्वयं ब्रह्म विष्णु महेश आदि त्रिदेवों को अपने पुत्र बनने के लिए मजबूर कर दिया था।

कौशिक ब्राह्मण की पत्नी ने, अपना पति वैश्यागामी होने के पश्चात भी उसकी रक्षा के लिए अपने पतिव्रता व्रत के बल से 10 दिन तक सूर्योदय नहीं होने दिया था। और स्वयं देवता व भगवान तक इसके लिए कुछ नहीं कर पाए थे।

वृंदा देवी के पतिव्रता व्रत के कारण, स्वयं भगवान शिव और विष्णु भी उनके दैत्य पति का बाल भी बाँका नहीं कर पा रहे थे।

भामती देवी की पति सेवा मात्र से उनके धर्मवान पति से भी पूर्व भामती देवी को भगवान ने स्वयं दर्शन दिये थे।

ऐसी ही हमारे इतिहास में अनेकों घटनाएँ मिलती हैं जिसमें पतिव्रता नारियाँ अपने पतिव्रता व्रत के बल पर ऐसे ऐसे कार्य कर देती है जिसे करना स्वयं बड़े बड़े तपस्वियों के लिए भी अत्यंत दुर्लभ होता है।

अतः हर स्त्री को चाहिए कि, वह विवाह से पूर्व अपने शील और पवित्रता की रक्षा करे और विवाह पश्चात तन, मन और हृदय से संपूर्ण रूप से पति के लिए उसकी आज्ञाओं का पालन कर के उसकी सेवा करे। पति की दीर्घायु व उसकी समृद्धि की कामना करे।

क्योंकि शिवपुराण व स्मृति शास्त्रों के अनुसार,

मात्र पतिव्रता व्रत के पालन मात्र करने से स्त्री को होम, यज्ञ,

श्राद्ध, उपवास तथा अखंड ब्रह्मचर्य आदि सभी का फल

मिल जाता है और उसे इस लोक और पर लोक में

साध्वी सती स्त्री की उपाधि मिलती है।

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